मेरी बाइक की एक लघु जीवनी
आज अपने घर, कटनी, से 1300Km दूर जालंधर के एक वीरान कमरे में अकेले क़ैद मेरी बाइक सोच रही है कि, "पूरी दुनिया में तो lockdown ख़त्म हो गया, लेकिन मुझे कब इससे आज़ादी मिलेगी?" पिछले पाँच महीने से एक ही जगह खड़ी, अपने अतीत की यादों में खोई...

आज से लगभग 15 साल पहले, 3 जनवरी 2005 को बाइक मेरे घर आई थी। काली, चमचमाती, मनमोहक, दिलकश, Discover 125CC! शाम का समय था। घर के लोगों ने उसका स्वागत किसी नवजात शिशु के जैसे किया। पास पड़ोस के लोगों ने भी बधाइयाँ दीं। बस मुझे तो मानो पंख लग गए हों। उस पर बैठ, झूमता, इठलाता, मस्ती में निकल पड़ा सैर को। बाइक जहाँ से गुज़रती लोग उसे चाह, आह, और निगाह भरकर देखते। ठंड के चलते जल्द ही घर वापस आना पड़ा।

फिर सारी रात उत्साह से भरी बेचैनी में गुज़री। लगा कब दिन निकले और फिर से सवारी पर निकलूँ। हालाँकि सुबह घर के पास ही एक स्कूल में नौकरी पर जाना था तो बाइक पर लंबी उड़ान का समय नहीं मिला। लेकिन स्कूल में बच्चों और साथी शिक्षकों ने बाइक की इतनी प्रशंसा की दिल गदगद हो गया।

जैसा कि होता है, समय के साथ बाइक के प्रति सभी का―मेरा भी―मोह और उत्साह घटने लगा। अब बाइक मेरे लिए यातायात का एक साधन मात्र रह गई थी।

कुछ सालों बाद, मेरी नौकरी जालंधर में, Lovely Professional University, Punjab में लगी, और बाइक भी मेरे साथ वहाँ गई। विश्वविद्यालय के अहाते में उसका अधिकतर समय अकेले, पार्किंग में ही खड़े बीतता था। मेरा विभाग पास होने के कारण मैं शुरू में पैदल ही विभाग जाता था। कभी विभाग दूर होता तो बाइक से जाता। कटनी में बाइक को उपयोग न होने पर घर के अंदर रखा जाता था। लेकिन अब उसे खुले में रहना पड़ता। धूल, धूप, ठंड, बरसात की मार झेलनी पड़ती। अधिकतर खड़े रहने के कारण उसके जोड़ और इंजन भी जाम होने लगे।

ढाई साल बाद, बाइक का समय बदला। हम एक नए घर में PG के रूप में शिफ्ट हुए। वहाँ फिर से बाइक को अपना निजी और सुरक्षित स्थान मिला और रोज़ मेरे साथ बाहर घूमने का मौक़ा।

फिर मैंने एक नए विश्वविद्यालय में नौकरी पाई, DAV University. DAVU मेरे घर से 22km दूर थी। इस दौरान बाइक मेरे और दिल के क़रीब आ गई क्योंकि इतनी लंबी दूरी किसी और वाहन से तय करना आसान नहीं था। कभी ठंड में जब एक दो किक मारने पर बाइक चालू न होती, तो मैं घबरा जाता कि इतनी लंबी दूरी कैसे तय होगी। पहले ऑटो पकड़ो, फिर दूसरा ऑटो, फिर बस! लेकिन फिर बाइक चालू हो जाती और सुकून मिलता।

कुछ साल यूँ बीते। फिर मैं विश्विद्यालय की बस से आने जाने लगा। बाइक से जाने में हर मौसम में एक असुविधा थी। कभी गर्मी की मार झेलता, कभी बरसात में भीगता, कभी ठंड में अकड़ता। बस सबसे बचाती। और फिर बस में पढ़ने और ध्यान करने का भी अवसर मिलता।

बस की इस सुविधा ने मुझे फिर बाइक से दूर कर दिया। अब तो हफ़्तों बाइक न चलती। मैं तो कई बार उसके वजूद से ही बेख़बर हो जाता। रोज़ सुबह सोचता कि शाम को वापस आकर बाइक को सैर कराने ले जाऊँगा, लेकिन इतना थक जाता कि उसे निकालने की हिम्मत ही न होती। इस सबके चलते बाइक को दो बार हृदयाघात (heart attack) भी आया, यानि उसका इंजन ख़राब हुआ।

अंततः एक हल सूझा: बाइक मैंने एक छात्र को दे दी ताकि चलती रहे और तंदुरुस्त रहे। (ये घटना इसी साल की है।) अचानक तालाबंदी हो गई। छात्र बिहार का था लेकिन तालाबंदी के दौरान उसे पंजाब में ही रुकना पड़ा। उसके छात्रावास में दो चार लोग ही बचे। दो महीने बाद उसे मौक़ा मिला एक विशेष रेलगाड़ी में वापस बिहार जाने का। मजबूरन, उसे बाइक अपने कमरे में छोड़नी पड़ी। हमने सोचा कुछ समय बाद सब सामान्य हो जाएगा। सामान्य तो हुआ लेकिन विश्विद्यालय न खुल पाने के कारण छात्र वापस नहीं लौटा, आज तक।

तब से अब तक बाइक उसी सुनसान कमरे में तन्हा क़ैद है, मानो उसे कोई सज़ा मिली हो। क्या है उसकी सज़ा? शायद उसका बुढ़ापा।